इस पोस्ट में हम गीता श्लोक का संस्कृत का अर्थ भी लिखा है जिससे आपको गीता के श्लोक के साथ साथ उसका अर्थ भी जान पाएंगे||(Gita Shlok in Sanskrit with Hindi meaning)

(द्वितीय अध्याय, गीता श्लोक 23)
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
अर्थात:आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥

(द्वितीय अध्याय, गीता श्लोक 47)
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
अर्थात:कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं | इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

द्वितीय अध्याय, गीता श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
अर्थात:विषयों वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
(द्वितीय अध्याय, गीता श्लोक 63)
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
अर्थात:क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद का अपना ही नाश कर बैठता है।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(तृतीय अध्याय, गीता श्लोक 21)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
अर्थात:श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(चतुर्थ अध्याय, गीता श्लोक 7)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अर्थात:हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(द्वितीय अध्याय, गीता श्लोक 37)
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
अर्थात:यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे.. इसलिए उठो, हे कौन्तेय , और निश्चय करके युद्ध करो।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
(चतुर्थ अध्याय, गीता श्लोक 8)
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
अर्थात:सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए… और धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
(चतुर्थ अध्याय, गीता श्लोक 39)
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
अर्थात:श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति (भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति) को प्राप्त होते हैं।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(षष्ठ अध्याय, गीता श्लोक 5)
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
अर्थात:अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है |
आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥
(नवम अध्याय, गीता श्लोक 26)
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
अर्थात:जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(द्वादश अध्याय, गीता श्लोक 15)
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
अर्थात:जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं होता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
(अष्टादश अध्याय, गीता श्लोक 66)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अर्थात:सभी धर्मो को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ. में तुम्हे सभी पापो से मुक्त कर दूंगा, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(चतुर्थ अध्याय, गीता श्लोक 8)
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
अर्थात:सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
(तृतीय अध्याय, गीता श्लोक 21)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
अर्थात:श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।
(द्वितीय अध्याय,गीता श्लोक 23)
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
अर्थात:आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 37)
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्। तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
अर्थात:यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे, इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो।